Skip to main content

हापुड़ के पापड़ ,जलेसर की भंग , शिकारपुर के चूतिया बुलंशहर के नंग

बुलंदशहर एक विहंगावलोकन 

राजा अहिबरन ने बसाया था यह नगर इसीलिए यहां के लोग आज भी आप को सरनेम बरनी रखे हुए मिल जायेंगे।शुरू में इसे बरन नगर ही कहा गया ,समुद्र तल से अपेक्षाकृत ऊंचाई (हाई लेंड )पर अवस्तिथि के कारण इसे बुलंद -शहर  कहा गया। 

यहां बोली  जाने वाली खड़ी बोली ही अपने उप मार्जित परिष्कृत रूप में उपन्यासिक हिंदी  बन गई ,अनेक साहित्यिक हस्तियां ब्रजमंडल के इस नगर से  जुड़ी  रहीं हैं। किसे प्रमुख कहें किसे गौड़ कहना मुश्किल है।

विभाजन के बाद पाकिस्तान चली गईं औरतों की सबसे बड़ी हिमायतिन किश्वर नाहीद शायरी के लिए जानी गईं हैं यहीं पैदा हुईं :

'जब मैं न हूँ तो शहर में मुझ सा कोई तो हो 
दीवार-ए-ज़िन्दगी में दरीचा  कोई  तो हो 

इक पल किसी दरख़्त के साए में साँस ले 
सारे नगर में जानने वाला कोई तो हो' 


'होती है ज़िंदगी की हरारत रगों में सर्द 
सूखे हुए बदन पे ये चमड़ा कसा भी देख 

पहचान अपनी हो तो मिले मंज़िल-ए-मुराद 
'नाहीद' गाहे गाहे सही आइना भी देख' 


'एक ही आवाज़ पर वापस पलट आएंगे लोग 
तुझ को फिर अपने घरों में ढूंढने जाएंगे लोग 

फिर नई ख़्वाहिश के ज़र्रों से बनाएंगे नगर 
फिर नई रस्म-ए-तलब रस्म-ए-वफ़ा लाएंगे लोग'
 
लेकिन किश्वर आपा फिर नहीं लौटीं पाकिस्तान की ही होकर रह गईं। यूं शायरी सरहदों को नहीं मानती। आलमी होते हैं शायर। 

फिलवक्त बुलंदशहर की आबादी तकरीबन दो लाख चौवालीस हज़ार के आसपास तथा बुलंदशहर जिले की आबादी तकरीबन चौंतीस लाख निन्यानवें हज़ार एक सौइकहत्तर के आसपास होगी। हिन्दू मुस्लिम भाई चारे के लिए जाना गया है यह नगर ,यहां शिया भी हैं अनेकांश सुन्नी बहुल है यह जिला। अहमदिया  भी यहां हैं। ईसाई  और अल्पांश में सिख भाई भी हैं। 

खुरजे की खुरचन (रबड़ी का उत्पाद )भी  हैं यहां चीनी मिट्टी  के बर्तन भांडे भी आला दर्जे की पोटरी भी। वेक्सीन भी यहाँ बनेगी ,जेवर अंतररष्ट्रीय हवाई अड्डा भी। एटमी संयंत्र के लिए नरौरा (कलकत्ती -नरोरा )जाना जाता है तो पुरखों का खानदानी इतिहास खंगालने वाला गढ़मुक्तेश्वर ,राजघाट (ब्रज घाट )भी यहां हैं।यहां लोग अस्थि विसर्जन के लिए आते हैं। 

महाकवि सेनापति से लेकर कुमार विश्वास तक साहित्य की त्रिवेणी है यहां। डॉ.कमल किशोर गोयनका ने यहां की सरज़मीं को आलोकित किया। आलमी स्तर तक पहुंचा इनका आलोक। वयोवृद्ध गीतकार कवि सम्मेलनों की मिश्री  गीतकार संतोषानन्द ,वैशाली की नगर वधु के प्रणेता आचार्य चतुर सेन शास्त्री यहीं  से हैं। 

गीतकार शिशुपाल निर्धन ,वीर रस का ओज और जोश  बिखेरने वाले ॐ पाल सिंह निडर ,यहीं हैं। वीररस का पर्याय मूर्त रूप रहे हरिओम पंवार यहीं  जन्में थे।

कवियित्री वंदना शर्मा ,कवि डॉ.चंद्र भूषन शर्मा यहीं हैं। बहुत कुछ छूट गया हैं यहां वह सीमा मेरी है यहां की उर्वरता असीम है।     

गंगा और जमुना के बीच में आबाद है यह नगर इसके पूरब में बदायूं और मो मुरादाबाद है पश्चिम में गौतम बुद्ध नगर (नोएडा )और उत्तर में मेरठ है। इसके दक्षिण में अलीगढ है। राजधानी दिल्ली से इसकी दूरी मात्र ९५ किलोमीटर है। जनसंख्या घड़ी  बतला रही है शहर  की आबादी इस लेख के लिखे जाने के वक्त बढ़कर चार लाख आठ हज़ार हो गई है। 

राजनीति के क्षेत्र में वर्तमान में आरिफ मोहम्मद खान साहिब का ज़िक्र किये बिना अध्यात्म में सबसे आगे महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद जी का ज़िक्र किये बिना जहां यह विहंगावलोकन आधा अधूरा रहेगा वहीँ मेरे परिचय के प्रगाढ़ दायरे में रहे अर्थशास्त्र के क्षेत्र में डॉ.श्री प्रकाश ,संगीत और वैकल्पिक चिकित्सा के क्षेत्र में शेखर जेमिनी का उल्लेख किये बिना तसल्ली नहीं होगी। श्री प्रकाश जी देश  के चोटी के अर्थशास्त्रियों में मान्य हैं। 

म्यूज़िक कॉन्फरेंसिज़ की जान रहे  सुक्खन लाल शर्मा जी तबला वादक पद्म श्री उस्ताद एहमद जान थिरकवा साहब के योग्यतम शिष्यों में से एक रहें हैं आप आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से म्यूज़िक प्रोड्यूसर्स  के रूप में जुड़े रहे हैं। आपने हमें संगीत की ताल पे झूमना थिरकना जीना  सिखाया ,हमारा बचपन आप के तबले की गमक कहरवा ताल संग बीता। आप की बांसुरी की स्वरलहरी चंदा मामा दूर के पुए  पकाये बूर के ,छुप गया कोई रे ,दूर से पुकार के दर्द अनोखे हाय दे गया प्यार के हमारे डीएनए का हिस्सा बन चुकी है।      

बुलंदशहर खुदा का शहर ,खाने को दो पहर ,

नहाने को नदी डूबने को नहर। 

हापुड़ के पापड़ ,जलेसर की भंग ,

शिकारपुर  चुतिया बुलंदशहर के नंग। 

बुलंदशहर का नाम लेते ही रीतिकालीन कवि घनानंद का नाम सहज ही मुखर हो उठता है। 

कवि  घनानंद  


रीतिकाल में प्रमुख तीन काव्य धाराएँ थी- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त। कवि घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के अग्रणी कवि थे। कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व की रचना उनके कवित्व ने स्वयं ही की है-

“लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहे तौ मेरे कवित्त बनावत”

अनुमान से इनका जन्म का समय संवत् 1730 के आसपास माना जाता है। इनका जन्म बुलंदशहर के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। घनानंद युवावस्था में ही दिल्ली चले गए और अपनी प्रतिभा के बल पर मुगल सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला के मीर मुंशी बन गए। घनानंद कविता में निपुण और सिद्ध संगीतकार थे। मुग़ल दरबार में इनका काफी सम्मान बढ़ गया था जिसके कारण अन्य दरबारी इनके विरोधी हो गए थे। वे घनानंद को दरबार से निकलवाना चाहते थे।

एक दिन दरबारियों ने राजा से कहा- मीर मुंशी बहुत अच्छा गाते हैं। बादशाह ने उन्हें गाने के लिए कहा किन्तु घनानंद बादशाह के बात को टालते रहे। यह देखकर दरबारियों ने बादशाह को बताया कि मीरमुंशी ‘सुजान’ के कहने पर अवश्य गायेंगे। सुजान बादशाह के दरबार में नर्तकी थी। सुजान के कहते ही कवि घनानंद सुजान कि ओर मुख और बादशाह की ओर पीठ करके बहुत ही अच्छे सुर में गाना गाने लगे। उनके संगीत को सुनकर बादशाह और सभी दरबारी मन्त्र-मुग्ध हो गए परन्तु पीठ फेर कर गाने की इस बे-अदबी के कारण नाराज होकर बादशाह ने घनानंद को दरबार छोड़ने का आदेश दे दिया। घनानंद ने सुजान को भी अपने साथ चलने के लिए कहा लेकिन नर्तकी सुजान ने घनानंद के इस आग्रह को ठुकरा दिया। सुजान के इस विश्वासघात  से घनानंद को बहुत धक्का लगा। इसी गहरे दुःख के कारण वे विरक्त होकर वृन्दावन चले गए। वहीं वे वृन्दावन में निम्बार्क वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित हो गए। वृन्दावन जाने के बाद उनके मन को शांति मिली और सुजान का प्रेम, राधा-कृष्ण के प्रेम में परिवर्तित हो गया।

घनानंद ‘स्वछंद मार्गी’ प्रेमी कवि थे। प्रेम के कई रूप होते हैं,

नेह – छोटों के प्रति प्यार,

प्रीत – इश्क, मुहब्बत अपने बराबर वालों के साथ,

प्रेमी – प्रेमिका-पत्नी का संबंध,

श्रध्दा – भक्ति-ईश्वर के साथ प्रेम आदि।

प्रेम अमूर्त विषय है। इसे वाणी से नहीं भावों से ही अभिव्यक्त किया जा सकता है। हर व्यक्ति प्रेम का भूखा होता है। कवि घनानंद को भी मुग़ल दरबार की नर्तकी सुजान से प्रेम हो गया था। कवि ने सुजान के सौंदर्य के आधार पर सुन्दरता के अनेक दशाओं की व्यंजना की है। कवि अपनी नायिका की विशेषता बताते हुए कहते हैं–

रावरे रूप की रीति अनूप, नयो-नयो लागै ज्यों-ज्यों निहारियै।

त्यों इन आंखिन बानि अनोखी अधानि कहूँ नहिं आन तिहारिये।

कवि कहते हैं- प्रिय के सुन्दर रूप से प्रियतम को कभी भी तृप्ति नहीं मिलती है। वह  जितनी बार भी उसे देखता है उतनी बार उसे नई लगती है। जब से सुजान को घनानंद ने देखा  है तब से उनकी आँखें किसी और को देखना ही नहीं चाहती है। उनके आँखों में सिर्फ सुजान ही बसी थी। घनानंद की कविता में सुजान की परम प्रेम की व्याख्या  है। घनानंद स्वयं प्रेमी थे। उनका सुजान से गहरा और एक तरफा प्रेम था।

अति सूधो सनेह को मारग  है, जहाँ नेकु सयानप बांक नहीं।

तहाँ सांचे चलै तजि आपनपो   झझकै कपटी जे निसांक नहीं।।

घनानंद की कविता का प्राण उनकी प्रेम की विरहानुभूति थी। घनानंद की कविता में प्रेम के पीर की अनेक रूप  विद्यमान  हैं। घनानंद के जीवन में प्रेम का स्थान बहुत ही ऊँचा था। उनका सम्पूर्ण जीवन काव्य प्रेम रुपी रस से ओत-प्रोत था। इनका प्रेम सामान्य नहीं उदात्त था। इन्होंने सुजान के पेशे से नहीं, सुजान से प्रेम किया था। घनानंद ने सुजान से नकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर भी प्रेम करना नहीं छोड़ा बल्कि उन्होंने सुजान के प्रेम को अपनी रचनाओं में पिरोकर उसे और भी अमर बना दिया। प्रेम के मार्ग में इन्हें जो दुःख और पीड़ा मिली उससे वे निराश नहीं हुए बल्कि और भी उत्साह से प्रेम के पथ पर आगे बढ़ते चले गए। घनानंद ने अपने प्रेम को आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा तक पंहुचा दिया। घनानंद ने जिस तरह प्रेम रूपी सागर में डूबकर सुजान से प्रेम किया उसी तरह अध्यात्म रूपी सागर में डूब कर भगवान श्री कृष्ण से भक्ति किया। घनानंद ने प्रेम और भक्ति के बीच की रेखाओं को मिटा दिया। इनका लौकिक प्रेम कब अध्यात्मिक प्रेम में बदल गया यह उन्हें भी नहीं पता चला। घनानंद को प्रेम में पीड़ा मिलती है लेकिन उस पीड़ा में ही वे आनंद का अनुभव करते हैं। प्रेम को ये साधना का दर्जा देते हैं तथा प्रेम के दोनों ही पक्षों (संयोग और वियोग) को सम्पूर्णता से अनुभव करते हैं। वे ‘संयोग’ का अनुभव जिस तन्मयता के साथ करते हैं, ‘वियोग’ का भी अनुभव उसी तन्मयता के साथ करते हैं। घनानंद के प्रेम में पलायन का भाव कहीं भी नहीं मिलता है और न ही निराशा दिखाई देती है। प्रेम में विरह से पलायन के लिए मृत्यु का वरन करना तो इनकी दृष्टि में कायरता थी। इसीलिए घनानंद ने प्रेम के दो परम्परागत आदर्श के प्रतीक माने जाने वाले ‘मछली’ और ‘पतंग’ की भर्त्सना (फटकार) की है-

“हमें मरिबो बिसराम गनै वह तो बापुरो मीट तज्यौ तरसै।

वह रूप छठा न सहारि सकै यह तेज तवै चितवै बरसे।

घनआनंद कौन अनोखी दसा मतिआवरी बावरी ह्वै थरसै।

बिछुरे-मिले मीन-पतंग-दसा खा जो जिय की गति को परसै।।”

सुख हो या दुख, दोनों की तीव्र और अत्यधिक घनीभूत अनुभूति वर्णनातीत हो जाती है। घनानंद की प्रेमानुभूति भी ऐसी ही है जिससे इनकी कविताओं में काफी कुछ मौन से ही सम्प्रेषित हो जाता है। घनानंद की बात (काव्य का कथ्य) रुपी दुल्हन, उर रुपी भवन में मौन का घूँघट डालकर बैठी रहती है। कोई काव्य मर्मज्ञ ‘सुजान’ ही इसे प्राप्त कर सकता है। –

“उर भौन में मौन को घूँघट कै दुरि बैठी बिराजत बात बनी।

मृदु  मंजू  पदार्थ-भूषन सों  सुलसै  हुलसै  रस-रूप  मनी।।”

घनानंद स्वयं अपने प्रिय को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ इसे शब्दों में कैसे व्यक्त करूँ? मैं नहीं कर सकता हूँ तथा करने की आवश्यकता भी नहीं क्योंकि तुम ‘सुजान’ हो। कुछ भी कह सकने में असमर्थ और चातक की भाँति बादल की ओर दृष्टि लगाये प्रिया का ध्यान सारे संसार से हटकर प्रिय की ओर ही लगा हुआ है।

“मन  जैसे कछू तुम्हें चाहत है सु-बखनीयै कैसे सुजान ही हौ।

इन  प्राननि  एक सदा गति रावरे, बावरे लौं लगियै नित लौ।

बुधि  और  सुधि नैननि बैननि मैं करिबास निरंतर अंतर गौ।

उधरौ जग चाय रहे  घनानंद चातिक  त्यौं तकिये अब तो।।  

घनान्द का प्रेम इसलिए भी अनोखा है क्योंकि इसमें इनका अथवा इनकी इच्छा का कोई महत्व नहीं है बल्कि इनका सारा हृदय-व्यापार ही इनके प्रिय पर केंद्रित है। प्रेम को सामान्यतः आग का दरिया आदि कहा गया है। स्वयं घनानंद के समकालीन कवि बोधा प्रेम के विषय में कहते हैं कि – 

“यह प्रेम को पंथ कराल महा, तलवार की धार पे धावनों है।”  

परन्तु इस मान्यता के विपरीत घनानंद ने कहा है –

“अति सूधो सनेह का  मारग  है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। 
तहाँ साँचे  चलैं तजी  आपुनपो  झझकैं कपटी जे निसाँक नहीं। 
घनआनंद प्यारे सुजान  सुनौ  इते  एक ते दुसरो आँक नहीं। 
तुम  कौन धौ पाटी पढ़े हो लला मन लेहु पाई देहु छटाँक नहीं।।” 

घनान्द की प्रेमानुभूति अद्भुत है, अद्वितीय है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये उनकी स्वभुक्त अनुभूति है न की किताबी अथवा सुनी-सुनाई। इनका पूरा जीवन ही प्रेम को समर्पित है। इस तरह से प्रेम के सागर में डूब कर प्रेम करने वाले शायद ही मिले। इनकी प्रेमानुभूति इतनी विलक्षण थी कि कृष्ण और ब्रज-भूमि के कण-कण से इन्हें इतना प्रेम था कि ये ब्रज की रज में लोटते हुए मरना चाहते थे। कहा जाता है कि नादिरशाह के सैनिक जब इन्हें मारने लगे तब इन्होंने उनसे मुस्कुराते हुए कहा था कि वे उन्हें तड़पा-तड़पा कर धीरे-धीरे मारें ताकि वह ब्रज की रज-रज में भली-भांति लोट कर मरें। प्रेम की ऐसी विलक्षण अनुभूति दुर्लभ है। 

घनानंद की विरहानुभूति –  घनान्द विरह के कवि के रूप में प्रसिद्ध थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस सन्दर्भ में लिखा है वास्तव में इन्होंने संयोग के सुख को पूरी सम्पूर्णता के साथ भोगा है। संयोग की ये पूर्णता ही इनके वियोग वर्णन को प्रभावशाली बनाती है। संयोग में इन्हें जो तीव्र घनीभूत अनुभूति हुई उसी कारण इनका वियोग भी मर्मांतक सिद्ध हुआ। बिना संयोग के वियोग कैसे संभव है? संयोग के बिना वियोग के स्वर या तो काल्पनिक होंगे जो प्रभावहीन हो जाएँगे या फिर रहस्यात्मक। परन्तु घा घनानन्द के साथ ऐसा नहीं था। इसलिये इनका वियोग अधिक प्रभावीशाली और प्रसिद्ध था क्योंकि इनकी विरहानुभूति वास्तविक और लौकिक है। इन्होंने सुजान से खुलकर प्रेम किया, पूर्ण रूप से स्वतंत्र एवं स्वछंद होकर इसलिए इनकी विरहानुभूति भी बहुत ही मार्मिक हुई। इस तरह ये विरहानुभूति की विलक्षणता के हिंदी साहित्य में एकमात्र कवि हैं। अपनी विरह की रचनाओं से ये हिंदी साहित्य के किसी भी काल के अन्य कवियों से भारी पड़ते हैं। इस मामले में छायावादी कवि भी इनसे पिछड़ जाते हैं क्योंकि उनका संयोग अपने आप में अपूर्ण है। इनकी विरह-वेदना में ऐसी ताप है जिसके ज़िक्र भर से जीभ में छाले पड़ जाए और न कहें तो ह्रदय विरह वेदना को कैसे सहे?

हिय  ही  मढ़ी  घुटी रहौं तो दुखी जिय क्यौं करी ताहि सहै ।

कहिये किहि भाँति दसा सजनि अति ताती कथा रास्नानि दहै।

घनान्द के जीवनवृत्त को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि सुजान के व्यवहार से इनके ह्रदय को बड़ी ठेस पहुँची और ये ठेस इतनी मर्मान्तक सिद्ध हुई की इनके जीवन की दिशा ही बदल दी। वियोग के कारणों और रूपों की विवेचना करते हुए डॉ० रामचन्द्र तिवारी ने अपने ‘मध्ययुगीन काव्य साधना’ नामक ग्रन्थ में लिखा है “इन सभी वियोगों में सबसे अधिक मर्मांतक विश्वासघात-जनित वियोग होता है। यह जीवन की धारा को बदल देता है। घनानंद का वियोग इसी कोटि का था। जिसने उनके जीवन की दिशा को ही बदल दिया। वे श्रृंगारी कवि से भक्त कवि हो गए।” घनानंद  कभी भी सुजान की निष्ठुरता को भुला नहीं पाए थे। इनका हृदय सुजान से फट जाता है, परन्तु वे उससे घृणा नहीं करते हैं। घनानंद विरहानुभूति की ताप में तपते रहते हैं। सुजान से मिला अपकार और उसके बाद भी उसके प्रति इनका प्रेम तथा इनके व्यक्तिगत प्रेम का राधा-कृष्ण की प्रेम-मूर्ति में विलय हो जाना, ये सब मिलकर इनके काव्य को विलक्षणता प्रदान करते हैं।

“तुम  ही  गति हौ तुम ही माटी हौ तुमहि पति हौ अति दीनन की।

नित  प्रीति  करौ  गुन-हीनन  सौ  यह  रीती  सुजान प्रवीनन की।

बरसौ  घनआनंद जीवन  को  सरसौ   सुधि  चातक  छीनन   की।

मृदुतौ  चित के पण पै द्रित के निधि हौ  हित कै  रचि मीनन की ।।”

प्रस्तुत  पद  में कृष्ण या सुजान को अलग करना  दुष्कर है। घनानंद के वियोग सम्बंधित पदों में इनके आत्मा की कातर ध्वनि सुनी जा सकती है। इनके पद ऐसे लगते हैं मानों सुजान के प्रति इनके सन्देश हों। ऐसा ही एक पद यहाँ दृष्टव्य है जिसमें निवेदन और उपालम्भ के स्वर कितने स्पष्ट हैं- 

“पहिले अपनाय  सुजान  सो, क्यौं  फिरि  तेह  कै  तोरियै  जू।

निरधार  आधार  दै  धार मझार   दई  गहि  बाँह न  बोरियै जू।
      घनआनंद अपने  चातिक  को  गन  बंधी  लै  मोह न छोरियै  जू 
      रस प्याय कै ज्वाय, बढ़ाय कै आस, बिसास में यौं बिस घोरियै जू।।”

घनानंद  के अतीत की सुन्दर प्रेमानुभूति अब विरहानुभूति का शूल बनकर हृदय में धँस गई है। अतीत के संयोग की मधुर स्मृतियाँ विरहाग्नि में घृत का कार्य कर रहीं हैं। इसी सन्दर्भ का एक पद यहाँ दृष्टव्य है जिसमें एक रमणी अपने प्रिय को उसके अनीतिपूर्ण आचरण के लिए उपालम्भ देते हुए कहती है-

“क्यों हँसि हेरी हर्यो हियरा अरू क्यों हित कै चित चाह बधाई।

कहे    को   बोली  सने  बैननि   चैननि  मैं  निसैन  चढ़ाई ।

सो सुधि मो हिय में घनआनंद  सालति  क्यों हूँ  काढ़ै न कढ़ाई।

मीत सुजान अनीति  की  पाटी  इतै पै न  जानिए कौन पढ़ाई।।”

वियोग में हृदय जलता है और आँखें बरसती है। इन आँखों को बरसना भी चाहिए  क्योँकि इन्होंने ही तो प्रिय की सुन्दर छवि को हृदय तक पहुँचाया। हृदय का इसमें क्या दोष?  पहले जो आँखें प्रिय की सुन्दर छवि को देख-देख कर प्रसन्न होती थी, तृप्त होती थी, वही आँखें अब दिन-रात अश्रु बहाती रहती है। आँखों की दीन दशा का घनानंद ने काफी अच्छा वर्णन किया है-

“जिनको  नित  नाइके  निहारती  ही तिनको  रोवती हैं।

पल-पाँवड़े  पायनी  चायनी  सौं  अँसुवानि की धरणी  हैं।

घनआनंद  जान सजीवन को सपने बिन पाईए खोवति हैं।

न खुली-मुंदी जान परैं कछु थे दुखदाई जगे पर सोवती हैं॥”

इस  संसार में सच्चा प्रेम करने वाले स्नेही लोग बहुत ही कम हैं। जैसे ही दो प्रेमियों के बीच के प्रेम की सुगंध का आभास लोगों को मिलता है वैसे ही लोग उनके विपरीत हो जाते हैं। माता-पिता, भाई-बंधु, नाते-रिश्तेदार आदि कोई भी साथ नहीं देता है। यह समाज तो सदा से प्रेम विरोधी रहा है पर शायद विधाता को भी सच्चे प्रेमियों से चिढ़ है, तभी तो वह वियोग की सेना सजाकर प्रेमी युगलों पर टूट पड़ता है

“इकतो जग मांझ सनेही कहाँ, पै कहूँ जो मिलाप की बास खिलै।

तिहि देखि सके न बड़ो विधि कूर, वियोग समाजहि साजि मिलै।”

लोकोक्तियों  बस दो चार बानगियाँ देखिये -

(१ )हापुड़ के पापड़ ,जलेसर की भंग ,

शिकारपुर के चूतिया बुलंशहर के नंग। 

(२ )बुलंदशहर ,खुदा का शहर 

खाने को रोटी दो पहर ,नहाने को  नदिया ,

डूबने को नहर। 

(३ )नंग बड़े परमेसर से -आपने ज़रूर सुना होगा। 

(४ )मेरा पेट हाउ मैं ना जानू  काऊ। 

(५ )रोते गए मरो की खबर लाये 

(६ )चमगादड़ के घर आये मेहमान ,बोली भैया  तुम भी उलटे लटको 

(७ )माँ मरी धी को धी मरी मोटे  से यारों को  

एक झलक गंग नहर बुलंदशहर की :

Comments

Popular posts from this blog

विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रतां। पात्रत्वाद् धनमान् प्रोति धनार्द्धमं तत : सुखं।| (अंग्रेजी हिंदीभावार्थ सहित )

विद्या ददाति विनयं विनयाद्  याति पात्रतां। पात्रत्वाद् धनमान् प्रोति धनार्द्धमं तत : सुखं।| (अंग्रेजी हिंदी भावार्थ सहित ) Knowledge makes one humble ,humility begets worthiness ,worthiness creates wealth and enrichment , enrichment leads to right conduct ,right conduct brings contentment. अर्थात विद्या विनय देती है (विनयदायिनी  है ),विनय पात्रता प्रदान करता है ,पात्रता से धन ,धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है। कृपया इसे भी तवज़्ज़ो देवें धन्यवाद ! https://www.youtube.com/watch?v=i-yDnQ2aaE0    

COVID Vaccines for Kids 12 to 15: Your Biggest Fears Addressed by Experts

  Many parents are hesitant, so we asked doctors to weigh in on the most common concerns. By  Karen Pallarito May 20, 2021 ADVERTISEMENT Save Pin FB More 00:15 00:37 Share:  COVID Vaccines for Kids 12 to 15: Your Biggest Fears Addressed by Experts × Direct Link Now that a  COVID-19 vaccine  has been green-lighted for children 12 and older, many parents are wondering whether it's safe or even necessary to get their teens vaccinated. Experts in pediatrics,  infectious disease , and childhood immunization insist the science is clear: the benefits far and away outweigh any risks. But what about allergies? What about long-term effects? Why not wait and see? There are plenty of opinions in the blogosphere and on social media about childhood vaccines in general and COVID-19 specifically. Unfortunately, the naysayers are often guided by faulty information or a misunderstanding of the science, expert say. CREDIT: ADOBESTOCK / GETTY What to know about the Pfizer vacc...